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क्या आत्मनिर्भर बन सकता है हथकरघा ?

हथकरघा या हैंडलूम शब्द सुनते ही एकाएक मन में चमचमाती रेशमी,महंगी और सदियों से चली आ रहीं परम्परागत साड़ियाँ याद आने लगती हैं।पोचमपल्ली, पटोला, पैठणी, चन्देरी, बालूचरि, गडवाल, बनारसी, कांजीवरम, जामदानी, आदि अनेक भारतीय धरोहर के स्वरूप को हथकरघा के माध्यम से हम पहनते और सराहते आ रहे हैं। जहाँ हथकरघा रेशमी वीव में विलासिता का पर्याय बना वहीं सूती ताने बाने में रोज़ मर्राह के जीवन का आरामदायक लिबास भी बना। कुंबि, खादी, कसावु, पटेदा एंचू , इलकल, तांत, नारायणपेट, जैसे भिन्न प्रांतों में बनने वाले ये सूती हैंडलूम, स्वतंत्रता सेनानियों से लेकर ग्रहणियों, कलाकारों, अध्यापकों, नेताओं आदि सभी वर्ग की महिलाओं के आवरण रहें हैं। पुरुषों ने भी सिल्क और कपास से बने हैंडलूम कपड़े जैसे कुर्ते -पजामे, धोती कुरता, सद्री, साफ़ा आदि वस्त्र बहुत चाव से पहने हैं। 

तो क्या इसके मायने ये है की हथकरघा, भारत का एक व्यापक उद्योग है? हैंडलूम के विशाल इतिहास को देखते हुए इस उद्योग का आत्मनिर्भर और प्रगतिशील होना तो स्वाभाविक ही लगता है। लेकिन हैंडलूम की परिस्थिति आज बहुत बिगड़ी हुई है, दुर्भाग्य की बात है की विगत इन वर्षों में हैंडलूम का विकास तो दूर इसका निरंतर पतन होता जा रहा है।आज की युवा पीढ़ी हैंडलूम से बहुत दूर है, इन पारम्परिक कपड़ों को पहनना तो क्या इनके नाम तक की जानकारी भी इन्हें नहीं है। सिन्थेटिक कपड़ों से बने सस्ते वस्त्र जिन्हें फ़ास्ट फ़ैशन भी कहा जाता है वह आज के युग का लेटेस्ट फ़ैशन स्टेट्मेंट बना हुआ है। 

स्वदेशी या हाथ से बुने कपड़े का महत्व महज़ आकर्षक टेक्स्टाइल या भारतीय संस्कृति तक सीमित नहीं है, ये वस्त्र भारतीय आबोहवा और यहाँ के लोगों के कार्य प्रणाली के अनुकूल हैं। साथ ही अनेक कारीगरों को रोज़गार दिलाने का एक महत्वपूर्ण माध्यम भी। साल के अधिकतर माह गर्मी या उमस के मौसम में बीतते हैं, ऐसे में ये प्राकृतिक धागे से तैयार हैंडलूम बहुत सुविधापूर्ण हैं और सिन्थेटिक कपड़ों की तुलना में ज़्यादा मज़बूत और सालों साल चलने वाले भी हैं। इन सभी विशेषताओं के बाद भी हैंडलूम उसके वर्चस्व की लड़ाई लड़ रहा है। वैश्वीकरण के इस युग में, ग्लोबल मार्केट के मास प्रडयूस्ड उत्पादों ने भारतीय वेष भूषा को स्वतंत्रता दिवस, शादी ब्याह या फ़ेयरवेल तक सीमित कर दिया है। फ़ैशन को ग्लोबल शब्द दे के विश्व के बड़े बड़े देशों ने अपने संस्कृति और पोशाक को दूसरे देशों में बहुत चतुराई के साथ स्थापित कर दिया है।इन ब्रांड ने परस्पर अच्छी मार्केटिंग और फ़ैशन शो द्वारा हर देश की ट्रेडिशनल पोशाक को अब पैंट शर्ट और जींस टॉप में तब्दील कर दिया है। इसीलिए अब साड़ी बांधना एक जटिल कार्य हो गया है और धोती कुर्ता एक ग्रामीण लिबास हो गया है। यही कारण है की हैंडलूम को अब सिर्फ़ बुद्धिजीवी या कलाकार वर्ग के लोगों में देखा जाता है ना कि आम आदमी के घर में। इसी वजह से हैंडलूम की क़ीमत में इज़ाफ़ा भी हुआ क्योंकि कई डिज़ाइनर लेबल इसे हैंड्मेड और सस्टेनेबल फ़ैशन के रूप में दुगने तिगने दामों में बेचने लगे।इससे हैंडलूम का मार्केट एलीट वर्ग तक थम के रह गया। हथकरघा के अधोगति का एक बड़ा कारण पॉवरलूम में हैंडलूम के रेप्लिका बनना भी है, जिसकी वजह से पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे बुनकर बेरोज़गार हुए। 

हथकरघा या हैंडलूम शब्द सुनते ही एकाएक मन में चमचमाती रेशमी,महंगी और सदियों से चली आ रहीं परम्परागत साड़ियाँ याद आने लगती हैं।पोचमपल्ली, पटोला, पैठणी, चन्देरी, बालूचरि, गडवाल, बनारसी, कांजीवरम, जामदानी, आदि अनेक भारतीय धरोहर के स्वरूप को हथकरघा के माध्यम से हम पहनते और सराहते आ रहे हैं। जहाँ हथकरघा रेशमी वीव में विलासिता का पर्याय बना वहीं सूती ताने बाने में रोज़ मर्राह के जीवन का आरामदायक लिबास भी बना। कुंबि, खादी, कसावु, पटेदा एंचू , इलकल, तांत, नारायणपेट, जैसे भिन्न प्रांतों में बनने वाले ये सूती हैंडलूम, स्वतंत्रता सेनानियों से लेकर ग्रहणियों, कलाकारों, अध्यापकों, नेताओं आदि सभी वर्ग की महिलाओं के आवरण रहें हैं। पुरुषों ने भी सिल्क और कपास से बने हैंडलूम कपड़े जैसे कुर्ते -पजामे, धोती कुरता, सद्री, साफ़ा आदि वस्त्र बहुत चाव से पहने हैं। 

तो क्या इसके मायने ये है की हथकरघा, भारत का एक व्यापक उद्योग है? हैंडलूम के विशाल इतिहास को देखते हुए इस उद्योग का आत्मनिर्भर और प्रगतिशील होना तो स्वाभाविक ही लगता है। लेकिन हैंडलूम की परिस्थिति आज बहुत बिगड़ी हुई है, दुर्भाग्य की बात है की विगत इन वर्षों में हैंडलूम का विकास तो दूर इसका निरंतर पतन होता जा रहा है।आज की युवा पीढ़ी हैंडलूम से बहुत दूर है, इन पारम्परिक कपड़ों को पहनना तो क्या इनके नाम तक की जानकारी भी इन्हें नहीं है। सिन्थेटिक कपड़ों से बने सस्ते वस्त्र जिन्हें फ़ास्ट फ़ैशन भी कहा जाता है वह आज के युग का लेटेस्ट फ़ैशन स्टेट्मेंट बना हुआ है। 

स्वदेशी या हाथ से बुने कपड़े का महत्व महज़ आकर्षक टेक्स्टाइल या भारतीय संस्कृति तक सीमित नहीं है, ये वस्त्र भारतीय आबोहवा और यहाँ के लोगों के कार्य प्रणाली के अनुकूल हैं। साथ ही अनेक कारीगरों को रोज़गार दिलाने का एक महत्वपूर्ण माध्यम भी। साल के अधिकतर माह गर्मी या उमस के मौसम में बीतते हैं, ऐसे में ये प्राकृतिक धागे से तैयार हैंडलूम बहुत सुविधापूर्ण हैं और सिन्थेटिक कपड़ों की तुलना में ज़्यादा मज़बूत और सालों साल चलने वाले भी हैं। इन सभी विशेषताओं के बाद भी हैंडलूम उसके वर्चस्व की लड़ाई लड़ रहा है। वैश्वीकरण के इस युग में, ग्लोबल मार्केट के मास प्रडयूस्ड उत्पादों ने भारतीय वेष भूषा को स्वतंत्रता दिवस, शादी ब्याह या फ़ेयरवेल तक सीमित कर दिया है। फ़ैशन को ग्लोबल शब्द दे के विश्व के बड़े बड़े देशों ने अपने संस्कृति और पोशाक को दूसरे देशों में बहुत चतुराई के साथ स्थापित कर दिया है।इन ब्रांड ने परस्पर अच्छी मार्केटिंग और फ़ैशन शो द्वारा हर देश की ट्रेडिशनल पोशाक को अब पैंट शर्ट और जींस टॉप में तब्दील कर दिया है। इसीलिए अब साड़ी बांधना एक जटिल कार्य हो गया है और धोती कुर्ता एक ग्रामीण लिबास हो गया है। यही कारण है की हैंडलूम को अब सिर्फ़ बुद्धिजीवी या कलाकार वर्ग के लोगों में देखा जाता है ना कि आम आदमी के घर में। इसी वजह से हैंडलूम की क़ीमत में इज़ाफ़ा भी हुआ क्योंकि कई डिज़ाइनर लेबल इसे हैंड्मेड और सस्टेनेबल फ़ैशन के रूप में दुगने तिगने दामों में बेचने लगे।इससे हैंडलूम का मार्केट एलीट वर्ग तक थम के रह गया। हथकरघा के अधोगति का एक बड़ा कारण पॉवरलूम में हैंडलूम के रेप्लिका बनना भी है, जिसकी वजह से पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे बुनकर बेरोज़गार हुए। 

भारत सरकार ने इस समस्या का समाधान निकालने के लिए, हैंडलूम के सामर्थ को देखते हुए और कुटीर विकास को आगे बढ़ाने के लिए ७ अगस्त २०१५ को राष्ट्रीय हथकरघा दिवस घोषित किया। इस विशेष दिनांक का चयन इसीलिए किया गया क्योंकि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान विदेशी उत्पादों के बहिष्कार और स्वदेशी उद्योग को बढ़ाने के लिए ७ अगस्त १९०५ को स्वदेशी आंदोलन की शुरुआत हुई थी। साथ ही भारत सरकार ने इंडिया हैंडलूम ब्रांड लॉंच किया जिसके माध्यम से ग्राहक सीधे बुनकरों से कपड़ा ख़रीद सकते हैं और ये सरकारी ब्रांड बुनकरों के काम को जाँच कर असली हैंडलूम होने पर हैंडलूम मार्क देकर इसको प्रमाणित भी करता है। इन सभी प्रयासों को अब पाँच वर्ष होने जा रहे हैं। लोगों में हैंडलूम के प्रति जागरूकता तो बढ़ी है लेकिन अब भी इसके ख़रीदार सीमित हैं। और रही सही कसर इस कोरोना महामारी ने निकाल दी।ज़ाहिर है घर बैठे हुए लोगों की अब प्राथमिकता कपड़ों में नहीं बल्कि स्वास्थ्य सम्बंधित उत्पादों में है। लेकिन कहते हैं ना डूबने वाले को तिनके का सहारा भी बहुत होता है। इसीलिए मैं आज के युवाओं से ये आवाहन करती हूँ कि प्रधानमंत्री के दिए हुए ‘आत्मनिर्भर भारत’ और ‘वोकल फ़ोर लोकल’ स्लोगन के अर्थ को समझते हुए स्वदेशी वस्तु को अपना कर उसे अपनी जीवनशैली का हिस्सा बनाएँ। यदि आप कपड़ा ख़रीदे तो हैंडलूम को भी अपनी लिस्ट में शामिल कर किसी बुनकर के लिए मददगार बनें और भारत को सक्षम बनाने की इस मुहिम में अपना बहुमूल्य योगदान दें। हैपी हैंडलूम डे! 

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